यह अंश जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की पुस्तक 'प्रेम रस सिद्धांत' के अध्याय-2 से उद्धृत है
'ईश्वर का स्वरूप'
'नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम्' अर्थात् जो वेद नहीं जानता वह ईश्वर को नहीं जान सकता। अतः सर्वप्रथम वेदों में ही चल कर देखा जाय। वेद कहता है-
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।अविज्ञात विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥ (केनोपनिषत् 2-3)
अर्थात् जो यह समझता है कि ईश्वर समझने का विषय है वह नहीं
समझता एवं जो यह समझता है कि ईश्वर समझने का विषय नहीं है वह
ईश्वर को समझता है। अर्थात् ईश्वर को कोई नहीं समझ सकता। दूसरी ओर वेद यह भी कहता है-
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः । (केनोपनिषत् 2-5)
अर्थात् यदि इसी मानव देह में ईश्वर को जान लिया, तब तो ठीक है
अन्यथा महती हानि हो जायगी क्योंकि यह मानव देह देवताओं को भी
अप्राप्य है।
वेदों ने ईश्वर के न जान सकने के कई कारण बताये हैं।
एक कारण तो यह है कि-
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्थी अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिबुद्धेरात्मा महान् परः ॥
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः ।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः ॥ (कठोपनिषत् 1-3-10, 11)
अर्थात् इन्द्रियों से परे इन्द्रियों के विषय हैं, विषयों से परे मन है, मन से
परे बुद्धि है, बुद्धि से परे जीव है, जीव से परे माया है, माया से परे ब्रह्म है।
भावार्थ यह कि इन्द्रिय, मन और बुद्धि से ईश्वर सर्वथा परे हैं, अतएव इन्द्रिय, मन, बुद्धि से ग्राह्य नहीं हो सकता, जब कि जीव के पास यही एकमात्र साधन हैं
दूसरा कारण यह है कि 'दिव्योह्यमूर्तः पुरुषः' अर्थात् ईश्वर दिव्य है एवं इन्द्रिय, मन, बुद्धि प्राकृत है। अतएव इन्द्रिय, मन, बुद्धि दिव्य ईश्वर को नहीं ग्रहण कर सकते।
तीसरा कारण यह कि -
तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । (श्वेताश्वतरोपनिषत् 6-14)
अतएव प्रकाशक ईश्वर से प्रकाशित इन्द्रिय, मन, बुद्धि अपने प्रकाशक की प्रकाशिका कैसे हो सकती हैं? अतएव वह सर्वथा अज्ञेय है।
चौथा कारण -
यन्मनसा न मनुते येनाहुमंनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ (केनोपनिषत् 1-5)
अर्थात् उसकी प्रेरणा से इन्द्रिय, मन, बुद्धि अपना-अपना कार्य करने में
समर्थ होते हैं अतएव प्रेर्य इन्द्रिय, मन, बुद्धि प्रेरक ईश्वर को ग्रहण करने में असमर्थ हैं।
इसके अतिरिक्त ईश्वर दो विरोधी धर्मों का अधिष्ठान है।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ (केनोपनिषत् 1-5)
अर्थात् उसकी प्रेरणा से इन्द्रिय, मन, बुद्धि अपना-अपना कार्य करने में
समर्थ होते हैं अतएव प्रेर्य इन्द्रिय, मन, बुद्धि प्रेरक ईश्वर को ग्रहण करने में असमर्थ हैं।
इसके अतिरिक्त ईश्वर दो विरोधी धर्मों का अधिष्ठान है।
अणोरणीवान् महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तमकतुं पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषत् 3-20)
अर्थात् आप जितनी छोटी कल्पना परमाणु आदि की कर सकते हैं ईश्वर उससे भी छोटा है एवं आप जितनी बड़ी कल्पना आकाशादि की कर सकते हों, ईश्वर उससे भी बड़ा है। छोटे से छोटा होना इसलिये अनिवार्य है क्योंकि उसे छोटी से छोटी वस्तु में भी व्याप्त होना है और बड़े से बड़ा होना इसलिए आवश्यक है कि सबको अपने भीतर स्थिर रखना है एवं प्रलय द्वारा अपने में प्रविष्ट कराना है। यदि इतना ही होता कि वह छोटा होता तो समझ में आता, यदि बड़ा होता तो समझ में आता। सम्भव है दोनों स्थितियाँ भी समझ में आ जाती किन्तु वेद कहता है कि- 'नेति नेत्यस्थूलमनणुः' न बड़ा अर्थात् न वह छोटा है और न बड़ा है। तब फिर उसे कैसे समझा जाय। है। तब फिर
अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात् ।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद ॥ (कठोपनिषत्. 1-2-14)
अर्थात् ईश्वर धर्म से परे है, अधर्म से परे है, कार्य से परे है एवं कारण से भी परे है।
6. पुनश्च-
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद ॥ (कठोपनिषत्. 1-2-14)
अर्थात् ईश्वर धर्म से परे है, अधर्म से परे है, कार्य से परे है एवं कारण से भी परे है।
6. पुनश्च-
सर्वेन्द्रियगुणाभासं
सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषत् 3-17)
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषत् 3-17)
ईश्वर समस्त इन्द्रियों आदि से रहित है, किन्तु समस्त इन्द्रियादिकों के विषय को ग्रहण करता है। यहाँ तक कि-
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् । (श्वेताश्वतरोपनिषत् 3-19)
अर्थात् उसके पैर नहीं हैं किन्तु दौड़ता है, उसके हाथ नहीं हैं किन्तु पकड़ता है, उसके आँख नहीं हैं किन्तु देखता है, उसके कान नहीं हैं किन्तु सुनता है, वह सब कुछ जानता है, उसे कोई नहीं जानता।
7. दूसरी ओर -
सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात् ।
स भूमिः सर्वत स्मृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ ( पुरुष सूक्त- 1)
अर्थात् उसके अनन्त सिर हैं, अनन्त आँखें हैं, अनन्त पैर हैं, आदि। अस्तु, अगर बिना पैर का होता तो हम उसे लंगड़ा समझ लेते किन्तु दौड़ता है तब लंगड़ा कैसे समझ लेंगे। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों की समस्या है।
8. पुनश्च-
तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ (ईशावास्योपनिषत् , 5)
अर्थात् वह चलता है, वह नहीं चलता है; वह दूर से भी दूर है एवं वह समीप से भी समीप है; वह सब के भीतर है एवं सब के बाहर है
9. पुनश्च-
अजायमानो बहुधा विजायते, तस्य योनिं परिपश्यन्ति श्रीराः । (यजुर्वेद)
अर्थात् वह अजन्मा भी है एवं अनन्तानन्त जन्म भी धारण करता है।
10. पुनश्च -
सोऽकामयत् । बहु स्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा
इदःसर्वमसृजत यदिदं किं च तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् । तदनुप्रविश्य
सच्च त्यच्चाभवत् । निरुक्तं चानिरुक्तं च निलयनं चानिलयनं च । विज्ञानं
चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् । यदिदं किं च। तत्सत्यमित्याचक्षते ।
तदप्येष श्लोको भवति ॥ (तैत्तिरीयोपनिषत्. 2-6)
अर्थात् उसने इच्छा की एवं तपस्या की जिससे सृष्टि हुई। भावार्थ यह कि वह सृष्टिकर्ता है। एवं -
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत् ।
(श्वेताश्वतरोपनिषत्. 1-9)
अर्थात् वह कुछ नहीं करता।
इसी आशय से गीता भी कहती है -
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ (गीता 7-7)
मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना। (गीता 9-4)
गतिभंर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ (गीता 9-18)
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते । (गीता 10-8)
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ (गीता 10-12)
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ (गीता 10-42)
द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
इसी आशय से वेदव्यासजी कहते हैं-
बासुदेवात्परो ब्रह्मन्न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वतः ॥ ( भागवत 2-5-14)
सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत् ।
तेनेदमावृतं विश्वं वितस्तिमधितिष्ठति ॥ (भागवत 2-6-15)
तेनेदमावृतं विश्वं वितस्तिमधितिष्ठति ॥ (भागवत 2-6-15)
पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः ।
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूनोंऽधायि मूर्धसु ॥ (भागवत 2-6-18)
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूनोंऽधायि मूर्धसु ॥ (भागवत 2-6-18)
वेदव्यास की एक परिभाषा तो बहुत ही विलक्षण है-
यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद् यद् यथा यदा।
स्यादिदं भगवान् साक्षात् प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ (भागवत 10-85-4)
अर्थात् जो विश्वरूप हो, जिसको विश्व व्यापार प्राप्त हो, जिससे विश्व की रक्षा होती हो, जिसके लिये विश्व हो, जिसमें विश्व उत्पन्न हुआ हो, जिसका विश्व हो, जिससे विश्व स्थित हो, ऐसा गाया एवं जीवों का स्वामी ईश्वर है। रामायण भी यही कहती है-
राम स्वरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धि पर ॥
अविगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम वद ॥
जग पेखन तुम देखन हारे। विधि हरि शंभु नचावन हारे ॥
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा और तुमहिं को जाननहारा॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहु सयानी ॥
भावार्थ यह कि ईश्वर सर्वथा अदृष्ट, अव्यवहार्य, अलक्षण, अव्यपदेश्य, अचिन्त्य है जैसा कि वेद कहता है 'अदृष्टमव्यवहार्यम् वेदव्यासानुसार उसे ब्रह्मा, शंकरादि भी नहीं जानते
नाहं न यूयं यदृत्तां गतिं विदुनं वामदेवः किमुतापरे सुराः ।
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ (भागवत 2-6-36)
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ (भागवत 2-6-36)
वेद कहता है, ऐसा ईश्वर तीन स्वरूप वाला है
एतज् ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किंचित् ।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्व प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥ (श्वेताश्वतरोपनिषत् 1-12)
अर्थात् तीन प्रकार के ईश्वर को जानना होगा, तब माया निवृत्ति होगी। प्रथम भोक्ता ब्रह्म, द्वितीय भोग्य ब्रह्म, तृतीय प्रेरक ब्रह्म। प्रेरक ब्रह्म के विषय में ऊपर बता ही चुका हूँ। भोक्ता ब्रह्म के विषय में वेद कहता है-
आत्मानः रथिनं विद्धि शरीरः रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ (कठोपनिषत् 1-3-3)
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाः स्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्ते त्याहुर्मनीषिणः ॥ (कठोपनिषत् 1-3-4)
विज्ञानसारथिर्वस्तु मन: प्रग्रहवान् नरः ।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ (कठोपनिषत् 1-3-9)
अर्थात् आत्मा रथी है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, ऐसे आत्मेन्द्रिय-मन-बुद्धि युक्त तत्त्व को भोक्ता-ब्रहा कहा जाता है। भोग्य ब्रह्म के विषय में वेद कहता है-
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषत् 4-5)
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥
(श्वेताश्वतरोपनिषत् 4-5)
अर्थात् वह भी अजा है। इसका भी कभी प्रारम्भ नहीं है, अनादि अनन्त है, उसे माया कहते हैं। यह तीन गुणों (सत्त्व, रज और तम) वाली है किन्तु ऊपर कहा जा चुका है कि ये तीनों बुद्धि से परे हैं।
अब विचारणीय यह है कि -
बुद्धि से भी जब ईश्वर अग्राह्य है तो हम कैसे आशा करें कि वह हमारी समझ में आ जायगा ? और बिना जाने विश्वास न होगा, बिना विश्वास के उसकी प्राप्ति न होगी एवं बिना उसकी प्राप्ति हुए परमानन्द का परमचरम लक्ष्य न हल होगा। वेद कहता है-
तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीराः
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
( श्वेताश्वतरोपनिषत् 3-8)
अर्थात् उस ईश्वर को जानने वाले भी हुए हैं। एक ओर ईश्वर को सर्वथा अज्ञेय, अदृष्ट आदि कहा जाता है और दूसरी ओर दृष्ट एवं ज्ञेय कहा जाता है, यह समस्या कैसे हल हो ? आइये, इस पर विचार करें ।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
( श्वेताश्वतरोपनिषत् 3-8)
अर्थात् उस ईश्वर को जानने वाले भी हुए हैं। एक ओर ईश्वर को सर्वथा अज्ञेय, अदृष्ट आदि कहा जाता है और दूसरी ओर दृष्ट एवं ज्ञेय कहा जाता है, यह समस्या कैसे हल हो ? आइये, इस पर विचार करें ।
स्रोत: प्रेम रस सिद्धांत, अध्याय-2 , ईश्वर का स्वरूप
🌷 राधे राधे 🌷


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