हम प्रायः भक्ति करते वक्त उसके मूल केंद्रीय सिद्धांत को को भूल जाते हैं और भक्ति का हमें बाह्य स्वरूप देखने को मिलता है। यहाँ जगद्गुरू कृपालु जी महाराज जी से जानिए कि, भक्ति का केंद्रीय तत्व क्या है और क्या है भक्ति की आधारशिला।

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।
(चै. अष्टपदी)
भक्तिमार्गावलंबी को सर्वप्रथम उपर्युक्त तीन शर्तों को पूरा करना होगा।1. तृण से बढ़कर दीन भाव रहे।
2. वृक्ष से बढ़कर सहिष्णु भाव रहे।
3. सबको सम्मान दे, स्वयं सम्मान न चाहे ।
हम लोग स्वयं को अच्छा कहलवाने का प्रयत्न करते हैं, यह महान पतनकारक है। हमको अच्छा बनने का प्रयत्न करना चाहिये। जैसे यदि कोई हमारी बुराई करता है तो हम फील करते हैं, उस व्यक्ति पर क्रोध करते हैं, उससे शत्रुता रखते हैं। शत्रु भाव से उसी का चिन्तन करते हैं। यह अपनी महती हानि करते हैं। जिस मन में शुद्ध हरि-गुरु को लाने का अभ्यास करना है, उसमें उस पतित को बार-बार स्थान देते हैं, इससे अंत:करण और अशुद्ध होता है।

देखो! एक सिद्धान्त सदा समझ लो, जब तक हमको भगवत्प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक हम पर माया का अधिकार रहेगा। जब तक माया का अधिकार रहेगा, तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सब दोष रहेंगे। इसके अतिरिक्त पिछले अनन्त जन्मों के पाप भी रहेंगे क्योंकि भगवत्प्राप्ति पर ही समस्त पाप भस्म होते हैं। यथा- 
यह भी सोचो कि श्रीकृष्ण हृदय में बैठकर हमारे आइडियाज़ नोट करते हैं। यदि हम .फ़ील करेंगे तो वे कृपा कैसे करेंगे । सदा सर्वत्र यह महसूस करने से दोष कम होंगे और इष्टदेव का बार- बार चिन्तन भी होता रहेगा। निन्दनीय के प्रति भी दुर्भावना न होने पाये क्योंकि उसके हृदय में भी तो श्रीकृष्ण हैं। निन्दनीय से उदासीन भाव रहे, दुर्भावना न हो। यह प्रार्थना बार-बार करो।
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ (गीता १८-६६)
अब सोचो-यदि कोई मुझे कामी, क्रोधी, लोभी, पतित, नीच, अनाचारी, दुराचारी, पापाचारी कहता है तो गलत क्या है- सच को सहर्ष मानकर उस दोष को ठीक करना चाहिये। एक कांस्टेबिल को हम जब कांस्टेबिल कह के परिचय कराते हैं तो वह यह नहीं कहता हमें एस.पी. कहो, आई. जी. कहो। फिर हम क्यों बुरा मानते हैं? तुलसीदास तो कहते हैं-
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय ।
वह निंदक तो हमारा हितैषी है। किसी के शरीर पर साँप बिच्छू चढ़ रहा है और कोई बता दे तो वह तो हमारा हितैषी है। जितने मायातीत भगवत्प्राप्त महापुरुष हुये हैं वे तो लिख कर दे रहे हैं।
मो सम कौन कुटिल खल कामी ।
और हम सचमुच हैं, तो बुरा मानकर अपनी घोर हानि कर रहे एक सिद्धान्त और समझे रहना चाहिये। हम जितने क्षण मन को भगवान् में रखते हैं बस, उतने क्षण ही हमारे सही हैं। शेष सब समय पाप ही तो करेंगे। इस प्रकार 24 घण्टे में कितनी देर हमारा मन भगवान् में रहता है, सोचो। बार- बार सोचना है कि मेरे पूर्व जन्मों के अनन्त पाप संचित कर्म के रूप में मेरे साथ हैं। पुन: इस जन्म के भी अनन्त पाप साथ हैं फिर भी हम भगवान् के आगे आँसू बहा कर क्षमा नहीं माँगते।
धिक्कार है, मेरी बुद्धि को। बार-बार प्रतिज्ञा करना है कि अब पुनः किसी के सदोष कहने पर बुरा नहीं मानेंगे। अभ्यास से ही सफलता मिलेगी। प्रतिदिन सोते समय सोचो- आज हमने कितनी बार ऐसे अपराध किये। दूसरे दिन सावधान होकर अपराध से बचो। ऐसे ही अभ्यास करते-करते बुरा मानना बन्द हो जायगा।

यदि दैन्यं त्वत्कृपाहेतुर्न तदस्ति ममाण्वपि ।तां कृपां कुरु राधेश ययाते दैन्य माप्नुयाम् ॥
अर्थात् ' हे श्रीकृष्ण! यदि दीनता से ही तुम कृपा करते हो तो वह तो मेरे पास थोड़ी भी नहीं है। अत: पहले ऐसी कृपा करो कि दीन भाव युक्त बनूँ।' ऐसा कह कर आँसू बहाओ। यह करना पड़ेगा। मानवदेह क्षणिक है। जल्दी करो, पता नहीं कब टिकट कट जाय।
यह मेरा नम्र निवेदन सभी से है।
यह मेरा नम्र निवेदन सभी से है।
🌷 राधे राधे 🌷
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