एक काम की बात सुनो मन -
जिस प्रकार जीव माया के
अण्डर में है उसी प्रकार भगवान योगमाया के अण्डर में हैं । यह योगमाया उनकी
प्रर्सनल पावर हैं जिसे स्वरूप शक्ति भी कहतें हैं, सीधी सीधी समझिये गधे की
अकल से ।
तो वो योगमाया क्या करती है ? भगवान् की सर्वज्ञता को
समाप्त कर देती है । अगर भगवान् ये याद रखें कि मैं भगवान् हूंँ तो फिर वो हमारे
काम का नहीं,
बेकार हो गया वो ।
हाँ, जैसे संसारी स्त्री, संसारी पति के लिए व्याकुल
हो रही है और पति परवाह नहीं कर रहा है तो वो स्त्री कहेगी, नमस्कार, ऐसे पति से, और कहीं व्याह कर लेंगें ।
तो उसी प्रकार अगर हम भगवान् से प्यार करें और भगवान् आत्माराम बने रहें, अजी गधों तुम्हारी हमको
क्या आवश्यकता है ? मैं तो ब्रह्मा, शंकर की भी आवश्यकता नहीं महसूस करता । तुम कूड़ा-कबाड़ा जीवों से
हमारा क्या लेना-देना ।
ना, जितनी मात्रा में हम
भगवान् से प्यार करेंगें उसी प्रकार प्रेम करना पड़ेगा भगवान को । करते हैं । तो
कैसे करतें हैं ? वही योगमाया, जो स्वरूपशक्ति है भगवान को मोहित कर देती है और अपने को छोटा मान
लेतें हैं । भक्त अपनी अल्पज्ञता को भूले, और भगवान् अपनी सर्वज्ञता को भूले, तब हिसाब किताब बैठेगा ।
ऐसे नही बैठेगा,
वरना तो वो ब्रह्म, ऐसा सोच कर हीं हार्ट फेल
हो जाऐगा जीव का, वो प्यार क्या करेगा ।
(भगवान के आगे हमारी क्या हैसियत है?)
तो वो उनकी सर्वज्ञता को
कुंठीत कर देती है योगमाया । इसलिए भगवान् रसरूप भी हैं और रसिक भी हैं । यानि
भगवान नाम का वो रस है, जिसको जीव पीते हैं, आनंद प्राप्त करतें हैं भगवान् से उनके दर्शन से , स्पर्श से । और भगवान भी
आनंद प्राप्त करतें हैं, उसी स्वरूपशक्ति से आनंद प्राप्त करतें हैं अपना आनंद देतें हैं , अपना आनंद लेते हैं ।
( भगवान भक्त के आगे छोटे हो जाते हैं )
देखिए एक होता है
स्वरूपानंद, एक होता है
स्वरूपशक्त्यानंद । स्वरूपानंद माने अपनें हीं आनंद का पान करना -
"रूप
देखि आपनार कृष्णेर हय चमत्कार ।" ( चै.चरिता.)
अपने रूप को देखतें हैं
श्यामसुंदर विभोर हो जातें हैं और उनके मन में कामना पैदा होती है, मैं गोपी बनकर के इस रूप
का रसपान करूँ । इस रूप का आलिंगन करूँ । ये देखिये स्वरूपानंद हैं । अपने रूप का
आनंद ले रहें हैं ।
लेकिन इससे ऊंँचा होता है
स्वरूपशक्त्यानंद। स्वरूपशक्त्यानंद, दो प्रकार का होता है । एक ऐश्वर्यानंद, एक मानसानंद, ये भक्तों से मिलता है ।
भक्त के अंदर भी वही स्वरूपशक्ति आ जाती है भक्ति करने से । तो भक्त को प्राप्त
स्वरूपशक्ति के द्वारा जो आनंद मिलता है भगवान् को - ऐश्वर्ययुक्त होता है, एक प्योर माधुर्य का होता
है । तो ऐश्वर्य वाला थर्ड क्लास का है लेकिन उनके स्वरूपानंद से ऊँचा है और
ऐश्वर्यानंद से भी ऊंचा होता है मानसानंद जिसमें माधुर्य हीं माधुर्य है । अरे बस
समझ लिजिये ,
कोई समझा नहीं सकता मैं आप
लोगों को अभी । आगे आप लोग समझेंगें ।
( भगवान स्वयं को देखकर खुद मोहित हो जाते हैं )
हाँ तो आपलोग समझ गये होंगें । वो स्वरूपानंद है ब्रह्म का आनंद । अनुभवानंद है परमात्मा का आनंद और प्रेमानंद है श्रीकृष्ण का आनंद । तो सर्बोच्च हुआ प्रेमानंद ।
इस प्रेमानंद में भगवान्
भक्तों के वश में हो जातें हैं। यानि उल्टा हो जाता है । भगवान् हो जाता है भक्त
और भक्त हो जाता है भगवान् । यानी भगवान् अपने को भक्त मानता है और भक्त अपने को
स्वामी मानता है । तभी तो सखा लोग भगवान को घोड़ा बना कर उनके कंधे पर वैठ कर अपनी
ऐंड़ी से मारता है भगवान के पेट में, चल घोड़े तेज चल और ठाकुर जी उतने हीं तेज भागतें हैं और
आनंद प्राप्त करतें हैं ।
( भगवान भक्तों के वश में हो जाते हैं )
संदर्भ-ग्रंथ: हम दो हमारे दो ,
पेंज नं - 51 से 53
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