एक भक्त का छोटा सा प्रश्न है कि माया भगवान् की शक्ति है और दैवी शक्ति है। दैवी माने अलौकिक। फिर ये माया इन जीवों को क्यों दुःख देती है?
अनादिकाल से जीव तापों से तप रहा है। दैहिक, दैविक, भौतिक तापों में तप रहा है; दुःखी है, अशांत है, अतृप्त है, अपूर्ण है। एक ही रीजनहै इसका माया। ऐसा क्यों करती है माया? और फिर महापुरुष लोग तो यहाँ तक कहते हैं - 'सो दासी रघुवीर की समुझे मिथ्या सोपि।' भगवान् की नौकरानी है। तो भगवान् की नौकरानी भगवान् के बेटे को भगवान् से विमुख करती है। ये बात लॉजिक में नहीं आती है। जीव भगवान् का पुत्र है। ये स्वयं भगवान ने कहा है-
'अमृतस्य वै पुत्रः।' 'त्वं माता त्वं पिता।'
वेद कह रहे हैं -
दिव्यो देव एको नारायणो माता पिता भ्राता निवासः शरणं सुहृद् गतिर्नारायण। (सबलोपनिषद् ६-४)
वेद कह रहा हैं। पुराण भी कह रहे हैं- 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव।
तो यह जीव भगवान् का पुत्र है। भगवान् से ही उत्पन्न हुआ है।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। (तैत्तिरीयोपनिषद. ३-१)
'जायन्ते' जायमान है। और माया भगवान् की नौकरानी है। ये दोनों शक्तियाँ हैं भगवान् की । तो एक शक्ति दूसरी शक्ति को शक्तिमान् से पृथक् करती है ऐसा क्यों? एक ओर तो भगवान् के दास ध्रुव, प्रह्लाद, अम्बरीष, तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, नानक, तुकाराम, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य आदि हमारे लिए कष्ट करके भगवान् की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं। हमारे बीच में आते हैं। हम उनका अपमान करते हैं, वे अपमान सहर्ष सह लेते हैं और फिर भी हमारा कल्याण करते हैं। ये तो समझ में आता है कि दास अपने स्वामी की सेवा कर रहा है। और एक दासी है, नौकरानी माया; वो भगवान् से विमुख करती है। ये विचित्र बात है।
एक दास कहता है भगवान् की ओर चलो और एक दासी कहती है एबाउट टर्न हो जाओ, उधर मत जाना। आओ हम तुमको रसगुल्ला देते हैं। ये एक प्रश्न छोटा-मोटा है, भोले बच्चों का। तो पहले तो ये समझिए।
भगवान् ने गीता में कहा है-
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। (गीता ७-१४)
अर्जुन! ये मेरी माया जो तीन गुण वाली है- सत्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी; ये दैवी है। दैवी माने अलौकिक और शास्त्र वेद भी कहते हैं कि ये जड़ शक्ति है -
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| ( माया तत्व ) |
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मृत्यु बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (गीता ७-४)
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अंहकार, मन, बुद्धि इस आठ का नाम है माया । प्रकृति भी कहती है कि इसको। ये जड़ है। अरे! पृथ्वी तो तुम जानते ही हैं, जड़ है। जल है, अग्नि है, वायु है, आकाश है सब जड़ हैं। और एक तरफ कह रहे हैं नहीं-नहीं, जड़ मत समझना। 'दैवी' और 'मम माया' मेरी माया है। मेरी है मेरी। और देखो, शक्तियाँ तो बहुत हैं मेरी, लिमिटेड पॉवर वाली; उसको जीव शक्ति कहते हैं। जीव, हम लोग। हम लोग तो बहुत थोड़ी-थोड़ी शक्ति रखते हैं। शरीर का बल, थोड़ा-सा; बुद्धि का बल थोड़ा-सा; सब थोड़ा-थोड़ा। हमें बहुत बड़ी-बड़ी शक्ति वाले स्वर्ग में रहते हैं। इन्द्र हैं, कुबेर हैं, अग्नि हैं बड़े-बड़े देवता हैं।
ये मेरे ही तेज से उत्पन्न हुये हैं बड़ी-बड़ी शक्ति वाले। लिमिटेड हैं इनकी शक्ति लेकिन बहुत बड़ी है। लेकिन मेरी माया को कोई शक्ति नहीं जीत सकती है, जितनी भी शक्तियाँ हैं मुझको छोड़ कर। यानी जीव शक्ति है बस और तो कोई शक्ति चौथीे नहीं ।
माया एक शक्ति है उसको जीतने के लिए जीव चला। तो तमाम क्लास हैं जीवों की शक्ति की स्वर्ग तक, लेकिन भगवान कहते हैं- 'देखो मेरे सिवा और कोई शक्ति मेरी माया शक्ति को नहीं जीत सकती।'
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। (गीता-७-१७)
'एव' शब्द का प्रयोग किया है गीता में। मेरी ही शरण में जो आयेगा उस पर मैं कृपा करूँगा और माया को भगाऊँगा। उसी की मायानिवृत्ति होगी। इसीलिए -
शिवचतुरानन देखि डेराहीं।
अपर जीव केहि लेखे माहीं।।
नारद भव विरंचि सनकादि। जे मुनि नायक आतमवादी।। (श्रीरामचरितमानस)
सब माया के अण्डर में हैं। अगर मैं कृपा कर दूँ तो फिर कौआ (कागभुशुंडि) भी, पक्षी (गरुड़) भी, अरे! गधा हो, कोई हो, वो माया को उत्तीर्ण कर ले। माया को भगा दे। यानी मेरी शक्ति के आगे ही माया शक्ति हार मानती है और किसी शक्ति से वो नहीं हार सकती। ये चैलेन्ज है। तो दैवी इसलिए है ये कि मेरी शक्ति से शक्तिमती है।
जासु सत्यता ते जड़ माया।
भास सत्य इव सहित सहाया।।
देखिये, हाथ सबके ऐसे ही होते हैं। लेकिन एक छोटे-सा बच्चा या एक घोर कमजोर मरीज किसी को मार दे तो हँस देगा और अगर एक भीमसेन, दस हजार हाथी के बलवाला, एक थप्पड़ मार दे तो वो गया काम से। छुट्टी। तो ये हाथ तो सबका एक-सा है, लेकिन वो मारने वाले की जो पॉवर है वो मेन है। तो माया जड़ है, ठीक है, लेकिन वह जिसकी शक्ति पाकर वर्क करती है, वह सर्वशक्तिमान् भगवान है; इसलिए भगवान् की शक्ति के आगे और किसी की शक्ति काम नहीं कर सकती। बड़ी सीधी-सी बात है। कितनी भी बड़ी शक्ति हो, है तो लिमिटेड और अनन्त शक्तिमान् भगवान् के आगे वो सीमित शक्ति क्या करेगी बेचारी।
तो, दैवी शक्ति इसको इसलिए कहा कि ये भगवान् की शक्ति के द्वारा ही वर्क करती है। कोई वर्क करे माया। और ये वर्क क्या करती है? ये दो प्रकार से, दास दासी कोई भी हों जीव का कल्याण करते हैं। माँ की तरह। माँ, संसारी माँ, बच्चे से कहती है-'बेटा स्कूल जाओ। ' वो दो-तीन साल माँ की गोद में खेला है। वह कहता है, "माँ कहती है कि स्कूल जाओ! कैसी माँ है! मैं नहीं जाता।" "ऐ! मिठाई खा लो, रसगुल्ला खा लो, हाँ राजा बेटा है।" लाड़-प्यार सब करती है। "मैं नहीं जाता।" अब माँ को गुस्सा आया- "मैं तुमसे नहीं बोलती, तुम्हें खाना भी नहीं दूँगी, हाथ-पैर बाँध दूंगी।" "ये कैसे माँ है! कल तक तो बड़ा प्यार करती थी हमको अलग नहीं करती थी और आज कहती है, स्कूल जाओ, स्कूल नहीं जाओगे तो हाथ-पैर बाँध दूँगी, खाना नहीं दूंगी, पिटाई करूँगी!" लेकिन माँ करुणामयी है। वो बेटे को बुद्धिमान बनाना चाहती है। बड़ा बनाना चाहती है। इसलिए कह रही है अपने से दूर करके भी-स्कूल जाओ। कोई गलत काम करता है बेटा तो माँ दण्ड देती है। ये दुश्मनी नहीं है। उसके पीछे करुणा छिपी है, दया छिपी है। ऐसे ही ये माया शक्ति हमको दुःख देती है। क्यों? हम भगवान की तरफ पीठ किये हुए हैं । भगवान को भूले हुये हैं, भगवान् का अपमान कर रहे हैं। हमारा पिता हैं भगवान ; उसको न मान कर ये संसारी बाप को बाप मानते हैं, माँ मानते हैं, बेटे मानते हैं, बीबी मानते हैं, पति मानते हैं। इनको अपना मानते हैं।
तो, एक तो ऐसी माँ है जो हमको प्यार से भगवान् की ओर ले जाती है; वो महापुरुष लोग हैं और एक ऐसी माँ है कि हमको दण्ड देती है अनेक प्रकार के कि मेरे पास आओ तो एक झापड़ लगेगा। जाओ वहाँ। वो हैं तुम्हारे? तो दंड देकर सुधार करना, ये कोप नहीं है, दुश्मनी नहीं है, बुराई नहीं है। ये भी दास का काम है। माँ का ही दोनों काम है- प्यार दुलार से भी बच्चे का सुधार करना और न मानने पर दण्ड देकर के सुधार करना।
हमारी दुनियावी गवर्नमेन्ट पुरस्कार भी देती है। हाँ, बड़े-बड़े पुरस्कार- नाबिल पुरस्कार और तमाम तरह के पुरस्कार हमारे देश में चल रहे हैं- जो जनता की सेवा करते हैं, जो कई प्रकार के अच्छे काम करते हैं; और दण्ड भी देती है सरकार। फाँसी तक देती है। लेकिन वो इसलिए नहीं देती कि दुश्मनी है सरकार की। इसलिए देती है कि दूसरा अपराध न करें और ये भी एक बार दण्ड मिलने के बाद दोबारा अपराध न करे, नहीं तो फिर दण्ड मिलेगा। वह भले ही बार-बार अपराध करता है, दण्ड को दण्ड नहीं मानता- बेहया है; लेकिन गवर्नमेंट की मंशा तो यही है कि इसका सुधार हो। वो भले ही बुरा मानता है और बुरी निगाह से देखता है जज को भी, गवर्नमेंट को भी, कानून को भी।
तो ऐसे ही भगवान् के जो दास हैं वो भगवान् का तत्त्वज्ञान करा करके, समझा करके अनेक कष्ट सह करके हमको भगवान् की ओर ले जाने का परिश्रम करते हैं। फिर भी हम जब नहीं मानते और भक्त और भगवान् का अपमान करते हैं और संसार की ओर जाते हैं कि यहाँ सुख है, मिलेगा। तो माया झापड़ लगाती है- आओ, हमारे यहाँ यही सुख है। ये बीबी ने डाँटा, पति ने डाँटा, बाप ने डाँटा। अब वो कहता है सब स्वार्थी हैं। अरे! हमने तो पहले ही कहा था, महापुरुष कह रहा है। क्यों वहाँ गऐ? अरे! हमने तुमको समझाया था कि तुम्हारे माँ, बाप, भाई, बन्धु सब भगवान हैं वहाँ जाओ। नहीं माने तो जाओ अपना दण्ड भोगो। कोई भी व्यक्ति गलत चीज़ खा लेगा तो उसका रियक्शन होगा। फल भोगना पड़ेगा। गुस्से में आकर कोई स्त्री कुँए में कूद पड़ी। तो भोगो, कूद पड़ी तो। रोओ।
तो नासमझी से हो या समझदारी से हो, गलत काम जो करेगा उसको संसार में भी दण्ड मिलता है। जान कर जहर पीया तो भी मरेगा, अनजाने में किसी ने पिला दिया तो भी मरेगा।
तो शास्त्र वेद का ज्ञान संत ने करा दिया फिर भी आप संसार में आनन्द माँगते हैं; क्योंकि प्रैक्टिकल आप उसी में ढूंढ रहे हैं। अपने को शरीर मानकर इन्द्रियों का सुख संसार से लेना चाहते हैं, और चाहते हैं मैं (आत्मा) सुखी हो जाऊँ। तो ये जो आपका भ्रम है, उसका दण्ड देती है माया। इसलिए माया कोई बुरी चीज नहीं है। वो बहुत बड़ी हितैषिणी है। ये तो असली सेविका है। अगर ये हमको दण्ड न दे तो एक भी तुलसीदास, सूरदास न बनते। संसार की ठोकर खाकर ही तो ये लोग महापुरुष बने हैं। संसार के अपमान को पाकर के ही बड़े-बड़े महापुरुष बने हैं। तो उसी माया के कारण ही तो बने हैं। वही तो निमित्त बनी। अगर तुलसीदास की बीबी न डाँटती तो वो इसी संसारी सुख में अटके रहते। इसलिए माया की बुराई नहीं करना है। वह भगवान् की शक्ति भी है और हमारी हितैषिणी भी है। वो शक्ति, भगवान् की शक्ति पाकर के, जड़ है फिर भी महाचैतन्य है, महा महा महाशक्तिमति है। भगवान् के बराबर।
अब गधे की अकल से समझो। माया शक्ति जो हमारे ऊपर हावी है वह 'जीव माया' है, उसका नाम जीव माया । ये माया दो होती हैं- एक होता है जीव माया और एक होता है गुण माया। जीव माया, गुण माया। तो जीव माया ये मेन है। गुण माया तो सदा जड़ रहती है। लेकिन जीव माया का कमाल है जो हमको दण्ड देती है और सुधार करती है। हमारे स्वरूप को भुलाया, संसार में आसक्त किया; ये दोनों कार्य जीव माया करते हैं। तो इसलिए हमें यहि सोंचना है कि ये माया भगवान् की दासी है और महाशक्ति मति है। उसको हम चिन्तन के द्वारा जैसे ज्ञानी लोग कहते हैं न, तुम सोचो 'मैं ब्रह्म हूँ' बस माया-वास कुछ नहीं। तो वो फुल मैड हैं। माया ऐसे ही नहीं जाएगी।
जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनाई।।
छूटे न राम कृपा बिनु नाथ कहहुँ पद रोपि।।
प्रतिज्ञापूर्वक कह रहे हैं संत लोग - बिना भगवत्कृपा के नहीं जाएगी। इसलिए भगवान् की शरण में जाना है। ये भगवान् के जो अनुकूल भाव के दास हैं उनकी बात मानकर लक्ष्य को प्राप्त करना है। माया की बुराई नहीं करना है, वह भी हमारी हितैषिणी है; उसके द्वारा हमें ज्ञान होता है, इसी को वैराग्य कहते हैं। और वैराग्य होने पर ही वो जो दास है असली भगवान् का, उसकी बात हम मानते हैं। अगर माया के कारण वैराग्य न हो, दुःखों के कारण वैराग्य न हो, तो फिर भगवान् की ओर प्रवृत्ति ही न होगी, संत चिल्लाया करे। हम हँसेंगे ये क्या फालतू बक -बक करता है; भगवान् में सुख है, भगवान् में .....। ऐ! देखो, हमारे यहाँ रसगुल्ला में सुख है; ये माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति में .... अरे! हमारी बीबी खराब है, हमारा बेटा खराब है, ये बात अलग है लेकिन औरों में बड़ा सुख होगा। ये भ्रम है हम लोगों को।
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| ( श्रीकृष्ण और कौरव सभा ) |
तो इस प्रकार आप लोग समझे रहें भगवान् की किसी शक्ति पर दुर्भावना न करें। भगवान् की सब शक्तियाँ भगवान् की हैं। और जो भगवान् की वस्तु है वो मंगलमयी होती है। अमंगल नहीं करती है। तरीका अलग-अलग होता है। कृपा करने का, मंगल करने का। तो एक संत का तरीका समझा-बुझा करके भगवान् की ओर ले जाना, लेकिन भगवान् इतने शक्तिमान् होकरके के भी और बहुत कोशिश किया उन्होंने कौरव-पाण्डव का युद्ध न हो, समझाने गये श्रीकृष्ण भगवान स्वयं कौरवों की सभा में और कहा- ' देखो भई! ऐसा है कि पाँच गाँव दे दो इन बेचारों को, पाण्डवों को, बाल बच्चे वाले हैं, गृहस्थी हैं, ये गुजर बसर कर लेंगे, बाकी तुम सारे संसार पर राज्य करो। लड़ाई झगड़ा ठीक नहीं है। हँसे सब कौरव, क्या छोकरा गाय चराता है, अकल है क्या इसको! पाँच गाँव दे दे। पांच गाँव दे दें, फिर ये पाँच राज्य बना लेगा आगे धीरे-धीरे।
हमारी इण्डिया में एक कंपनी आई थी पहले, ईस्ट इण्डिया कंपनी, सुना होगा आप लोगों ने? धीरे-धीरे उसने सारी इण्डिया पर कब्जा कर लिया (अंग्रेजों ने) और सैकड़ों साल राज्य किया। हाँ। अरे, संसार में आप लोग देखते हैं न, ट्रेन में बहुत भीड़ होती है- अरे भैया! हम खड़े रहेंगे, हमको घुसने दो। घुस गये। जरा-सा पीछे हटो, आप ही ने टिकिट लिया है क्या? अब फिर, जरा हार्ट में तकलीफ है, मैं हार्ट का मरीज हूँ, बहुत परेशान हूँ, जरा और बगल हो जाओ भई।
हाँ, तो भगवान् की शक्ति सदा मंगलमयी होती है। हमें कहीं भी दुर्भावना नहीं करना है और समझे रहना है कि माया को हम अपनी शक्ति के बल पर तपश्चर्या आदि के द्वारा भी, बड़ी-बड़ी शक्तियों को पाकर भी, अनन्त युग प्रयत्न करके भी, हटा नहीं सकते। इसलिए इतना सारा लेबर करने के चक्कर में न पड़कर सीधे सीधे भगवान् के शरणापन्न होना है।
- जगद्गुरुतम श्री कृपालु जी महाराज
🌷 राधे राधे 🌷








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